एक अनुपम विवाह—भगवान शिव और माँ पार्वती का दिव्य मिलन।
भगवान शिव की अनोखी बारात
इसमें कठोर तप द्वारा भगवान शिव को पुनः प्राप्त करने के बाद, माँ पार्वती अपने पिता राजा हिमवान के महल में लौटीं। अपनी पुत्री को तपस्या में सफल होकर लौटते देख, उनके माता-पिता अत्यंत हर्षित हुए।दिन तेजी से बीते और भगवान शिव तथा माँ पार्वती का विवाह-दिवस आया। भगवान शिव के गण अत्यंत उत्साहित थे और उन्होंने उनकी बारात में साथ चलने का निर्णय लिया। वे सदैव शिव की कृपा और संरक्षण में रहते थे, और यह विवाह उनके लिए एक विशेष अवसर था।
भगवान शिव भोलेनाथ हैं। उनका नाम ही शिव है, अर्थात् ‘मंगल का प्रतीक।’ उन्हें बाहरी दिखावे और औपचारिकताओं की कोई चिंता नहीं थी। वे वैसे ही बारात में शामिल हुए, जैसे वे वास्तव में थे। उन्होंने वासुकी और तक्षक जैसे भयानक नागों को हार, कंगन, कमरबंद और कुण्डलों के रूप में धारण किया हुआ था। उनके हाथ में त्रिशूल था, और उनके योगमय शरीर को केवल एक बाघ की खाल ढक रही थी। उनके पूरे शरीर पर शमशान की भस्म लगी हुई थी।महादेव की जटाएँ बिखरी हुई थीं और उन्होंने अपने पाँचों मुख प्रकट कर रखे थे। वे प्रचंड और प्रभावशाली प्रतीत हो रहे थे। जहाँ अन्य राजकुमार घोड़ों पर सवार होकर आते हैं, वहाँ वे अपने वाहन नंदी बैल पर आरूढ़ थे। यह बारात अपने आप में अद्वितीय थी, जिसमें ब्रह्मा, विष्णु और अन्य देवताओं के साथ भूत, प्रेत, पिशाच, अघोरी और समाज से तिरस्कृत प्राणी भी सम्मिलित थे। ‘बम बम भोले’ की गूँज से आकाश भर गया, जिससे माता मैना, जो अपनी प्रिय पुत्री के लिए वर को द्वार पर स्वागत हेतु खड़ी थीं, आशंकाओं और चिंता से व्याकुल हो उठीं।
माँ की चिंता और पुत्री की प्रतिक्रिया
गण अत्यधिक उत्साहित थे, और उन्हें मर्यादा का कोई भान नहीं था। रानी मैना यह सोचकर चिंतित थीं उनकी कोमल और राजसी पुत्री अब ऐसे उन्मत्त और भगवान शिव के तपस्वी अनुयायियों के बीच कैसे रह पाएगी। माँ पार्वती के चिरसंगिनी भगवान शिव भी अत्यंत भयंकर रूप में उपस्थित थे। इस गहन विरोधाभास और आघात को सहन न कर पाने के कारण रानी मैना मूर्छित हो गईं। हालाँकि, माँ पार्वती केवल शिव की अर्धांगिनी ही नहीं थीं, वे शिव तत्त्व को पूर्ण रूप से आत्मसात कर चुकी थीं। ब्रह्मचारिणी रूप में जैसा कि देखा गया है, वे शिव सिद्धांत की आचार्या भी थीं और सप्तर्षियों तक को मार्गदर्शन दे चुकी थीं। फिर भी, एक पुत्री के रूप में वे अपनी माँ की आशंकाओं को भली-भाँति समझती थीं।
रानी मैना को आश्वस्त करने के लिए, माँ पार्वती ने भगवान शिव को एक सौम्य रूप धारण करने के लिए मनाने का निर्णय लिया। इसके लिए, उन्होंने क्षण भर के लिए स्वयं एक उग्र रूप धारण किया। दस भुजाओं में विविध अस्त्र-शस्त्र धारण किए, और उनके मुकुट पर अर्धचंद्र के आकार की घंटा सुशोभित थी। इस प्रकार माँ पार्वती ने भगवान शिव की प्रबल ऊर्जा को प्रतिबिंबित किया। उनका यह तेजस्वी रूप माँ चंद्रघंटा के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस रूप में उन्होंने उग्र गणों को शांत किया। भगवान शिव से विवाह के लिए एक सुखद और सौम्य रूप धारण करने का निवेदन किया।
माँ चंद्रघंटा और भगवान चंद्रशेखर
भगवान शिव इस प्रेमपूर्ण भाव से अभिभूत हो उठे। उन्होंने अपना भयानक रूप त्याग दिया और भगवान विष्णु ने उन्हें एक मनमोहक वर के रूप में सजाया। इस रूप में भगवान शिव, चंद्रशेखर (चंद्र को धारण करने वाले) या सुंदरेश्वर (अत्यंत सुंदर) के नाम से पूजित हुए। अपने प्रेम और भक्ति की निशानी स्वरूप, देवी पार्वती ने भी अपने मस्तक पर अर्धचंद्र धारण किया, जो भगवान शिव की जटाओं में सुशोभित चंद्रमा का प्रतिबिंब था। भव्य विवाह के पश्चात माँ पार्वती भगवान शिव के साथ कैलाश पर्वत गईं, जहाँ उन्होंने अपने जीवन का नया अध्याय आरंभ किया।
जब भगवान शिव गहन ध्यान में लीन रहते, तब देवी पार्वती स्नेहपूर्वक उनकी देखभाल करतीं। माँ पार्वती ने धीरे-धीरे उस गुफा को एक ऐसा आवास बना दिया जो प्रेम और सौंदर्य से युक्त था। पर क्या यह शांति लंबे समय तक रह पाएगी? नवविवाहिता माँ पार्वती के सामने कौन-से संकट आने वाले थे? जानने के लिए पढ़िए अगली कड़ी।
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