
श्री ललिता सहस्रनाम की उत्पत्ति का रहस्य क्या है ?
इस लेख में आप जानेंगे कि श्री ललिता सहस्रनाम और देवी साधना के दिव्य ज्ञान की परंपरा कैसे विकसित हुई। श्री विद्या के प्रथम साधक कौन थे, और यह ज्ञान धरती पर कैसे पहुँचा?
कई पाठकों के लिए श्री ललिता सहस्रनाम का यह प्रथम परिचय हो सकता है। हालांकि, यह एक प्राचीन स्तोत्र है जो दक्षिण भारत में विशेष रूप से लोकप्रिय है। इस स्तोत्र की मौखिक परंपरा का इतिहास हजारों वर्षों पुराना है। यह अन्य स्तुतियों की तरह मानव निर्मित नहीं है; अपितु वेदों की तरह ‘अपौरुषेय’ है। तो चलिए आपको बताते हैं कि यह रहस्यमयी स्तोत्र कब और कैसे अस्तित्व में आया।
माँ ललिता के प्रथम साधक कौन थे?
ब्रह्मांड पुराण में ललिता सहस्रनाम और ललितोपाख्यान का उल्लेख मिलता है, जिसमें माँ ललिता की विजय गाथाएँ वर्णित हैं। इस कथा का आरंभ तब होता है जब भगवान शिव के निर्देश पर महामुनि ऋषि अगस्त्य विंध्याचल पर्वत से आगे दक्षिण दिशा की यात्रा पर निकलते हैं। विंध्य पर्वत अभिमानी हो गया था, और तेजी से अपनी ऊँचाई में वृद्धि कर रहा था। इससे प्रकृति और अन्य प्राकृतिक जीव संकट में थे। ऋषि अगस्त्य ने विंध्य पर्वत से अनुरोध किया कि वह उन्हें दक्षिण की ओर जाने का मार्ग दे और जब तक वे वापस न आ जाएँ, बढ़ना बंद कर दें। विंध्य पर्वत ने मुनिवर के अनुरोध को स्वीकार किया। ऋषि अगस्त्य दक्षिण भारत में ही रुक गए, जिससे विंध्य पर्वत की वृद्धि सदैव के लिए थम गई।
मानव जाति को अंतहीन इच्छाओं के दलदल में फँसा हुआ, और सद्भाव व मुक्ति से दूर होता देख, ऋषि अगस्त्य का मन पीड़ा से भर गया। वे कांचीपुरम पहुँचे, जहाँ देवी माँ कामाक्षी के रूप में विराजमान थीं। वहाँ ऋषि अगस्त्य ने भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए कठोर तप किया। उनके तप से प्रसन्न होकर, भगवान विष्णु हयग्रीव के रूप में प्रकट हुए, जिन्हें असीम बुद्धिमता के लिए जाना जाता है। भगवान हयग्रीव ने ऋषि अगस्त्य को श्री ललिता सहस्रनाम की दीक्षा दी। इस दीक्षा को प्राप्त करने वाले वे प्रथम साधक बने। भगवान हयग्रीव ने कहा कि श्रद्धापूर्वक ललिता सहस्रनाम का जप करने से इच्छाएँ पूर्ण होंगी और मोक्ष की प्राप्ति होगी।
माँ ललिता का आवाहन
इसके पश्चात हयग्रीव नामक एक अन्य ऋषि ने महामुनि अगस्त्य को माँ ललिता की कथा से अवगत कराया। उन्होंने बताया कि भांडासुर नामक हिंसक राक्षस के शासन का अंत करने के लिए देवताओं ने कैसे माँ ललिता का आवाहन किया था। भांडासुर प्रेम के देवता मन्मथ (कामदेव) की राख से उत्पन्न हुआ था। देवताओं ने कामदेव को भगवान शिव की तपस्या भंग करने और देवी पार्वती के प्रति उनके मन में प्रेम उत्पन्न करने के लिए भेजा था, ताकि ब्रह्मांड में पुनः संतुलन स्थापित किया जा सके।
भगवान शिव क्रोधित हो गए। जैसे ही उन्होंने अपना तीसरा नेत्र खोला, कामदेव जलकर भस्म हो गया । कामदेव की पत्नी रति ने भगवान शिव से आग्रह किया कि वे कामदेव की भस्म देह पर कम से कम एक यौगिक दृष्टि डालें। ज्यों ही भगवान शिव ने राख के ढेर पर प्रेमपूर्ण दृष्टि डाली, उसमें से भांडासुर नामक राक्षस उत्पन्न हुआ। उसने शोणितपुर को अपना आवास बनाया और देवताओं पर अत्याचार करना आरंभ कर दिया।
नारदमुनि के परामर्श पर देवताओं ने परम शक्ति माँ त्रिपुर सुंदरी का आवाहन करने के लिए घोर तपस्या आरंभ कर दी। केवल माँ त्रिपुर सुंदरी ही भांडासुर का अंत कर सकती थीं। हजारों वर्षों तक देवताओं ने तप किया। अंत में उन्होंने एक हवन कुंड (अग्नि कुंड) का निर्माण किया और देवी के प्रति समर्पण व्यक्त करते हुए, यज्ञ अग्नि में अपने शरीर की आहुति देने लगे। यज्ञ की ज्वलंत अग्नि से माँ महा त्रिपुर सुंदरी प्रकट हुईं। उनका स्वरूप अद्भुत था: गौर वर्ण, चार भुजाधारी, सुगंधित, सुंदर, मनमोहक तथा करूणामयी। वे श्री चक्र रथ पर विराजमान थीं।
माँ के आगमन पर देवतागण अभिभूत हो गए, लेकिन वे नहीं जानते थे कि देवी को प्रसन्न कैसे करें। उन्होंने अपनी अज्ञानता स्वीकार करते हुए देवी से आग्रह किया कि वे स्वयं ही अपने स्वागत का तरीका बताएं। तब माँ ललिता ने अपनी आठ शक्तियों—वाग्देवियों का आवाहन किया। वाग्देवियाँ माँ ललिता को उनके एक हजार नामों से संबोधित करते हुए उनकी स्तुति करने लगीं, जिन्हें आज हम ललिता सहस्रनाम के रूप में जानते हैं।
ललितोपाख्यान में माँ ललिता ने कहा है, "जब मेरे भक्त इस स्तोत्र का पाठ करते हैं, तो मुझे परम संतोष की प्राप्ति होती है।"
ललिता सहस्रनाम के ज्ञान का विस्तार
ऋषि अगस्त्य से, श्री ललिता सहस्रनाम और देवी साधना का ज्ञान ऋषि दत्तात्रेय को प्राप्त हुआ, जिन्होंने इसे परशुराम और वशिष्ठ को दिया। ऋषि वशिष्ठ ने यह साधना अपने पौत्र मुनि पाराशर को दी, जो महर्षि वेदव्यास के पिता थे। धरती पर सर्वप्रथम महर्षि वेदव्यास को ही कुंडलिनी साधना की दीक्षा दी गई थी।
वेदव्यास ने बारह वर्षों तक जगत्माता माँ ललिता के साकार रूप पर ध्यान लगाया, और फिर अगले बारह वर्षों में उन्होंने कुंडलिनी (अपने भीतर छिपी सुप्त शक्ति) के रूप में जागृत किया । जब माँ ग्रंथियों और चक्रों का भेदन करते हुए उनके भीतर जागृत हुईं, तो महर्षि व्यास ज्ञान और ऊर्जा से संपन्न हो गए।
इसके पश्चात महर्षि वेदव्यास ने ब्रह्मांड पुराण की रचना की, जिसमें ललिता सहस्रनाम का पहला लिखित प्रमाण मिलता है। महर्षि वेदव्यास का सनातन धर्म के ग्रंथों की रचना में अतुलनीय योगदान है। उन्होंने वेदों का संकलन किया और महाभारत तथा 18 पुराणों की रचना की।
माँ की कृपा और वेदव्यास के तपोबल के कारण ही, आज ललिता सहस्रनाम और कुंडलिनी साधना हम सभी के लिए उपलब्ध हैं।
ललिता सहस्रनाम और कुंडलिनी साधना की उत्पत्ति के बारे में अधिक जानकारी के लिए आप श्री ओम स्वामी की पुस्तक "कुंडलिनी: एन अनटोल्ड स्टोरी" पढ़ सकते हैं।
ललिता सहस्रनाम एक महामंत्र है, जो हमें असंख्य आशीर्वाद प्रदान करता है। वैसे तो माँ ललिता का आवाहन करने के लिए हर समय शुभ होता है, लेकिन नववर्ष के शुभारंभ पर उनके दिव्य नामों को सुनने और उन्हें अपने जीवन आमंत्रित करने के लिए यज्ञ से बेहतर क्या हो सकता है? इस नववर्ष पर, श्री विद्या सिद्ध श्री ओम स्वामी के साथ श्री ललिता सहस्रनाम यज्ञ में भाग लें।
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