इस लेख में आप जानेंगे कि माँ ललिता के शक्तिशाली नामों के साथ यज्ञ करने का हमारे जीवन पर क्या प्रभाव होता है।
सनातन धर्म में अग्नि पूजन को विशेष स्थान दिया गया है। प्राचीन समय से ही अग्नि मानव जीवन का एक अभिन्न अंग रही है। अग्नि दिव्यता की प्रतीक है; इसका पूजन ‘अग्नि देव’ या ‘जातवेद’ के रूप में किया जाता है।
यज्ञ की शक्ति और महत्ता
अग्नि की आहुति को संस्कृत भाषा में ‘यज्ञ’ कहा जाता है, जिसका अर्थ है ‘’बलिदान‘’, या ‘’अर्पण करना‘’। यह बलिदान परामात्मा को अर्पित होता है। यज्ञ की प्राचीन परंपरा हमारे ऋषि-मुनियों ने विभिन्न आहुतियों से देवी-देवताओं का आवाहन करने, कृतज्ञता व्यक्त करने, और उनका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए विकसित की थी। यज्ञ एक शुद्धिकरण की प्रक्रिया है। पवित्र अग्नि हमारे दोषों और नकारात्मक प्रवृत्तियों को जला कर समाप्त कर देती है।
चेतना की अग्नि का आवाहन
ललिता सहस्रनाम यज्ञ के माध्यम से हम माँ ललिता—जो स्वयं कुंडलिनी शक्ति हैं — के साथ गहन संबंध स्थापित कर सकते हैं। माँ ललिता हमारे आंतरिक अंधकार को दूर करती है और हमें हमारी अधिकतम क्षमता तक पहुँचने की प्रेरणा प्रदान करती हैं। ललिता सहस्रनाम में देवी माँ के दो अत्यंत सुंदर नाम आते हैं — "चिदग्नि कुंड सम्भूता" और "देवकार्यसमुद्यता"।
केवल शाब्दिक अर्थ को देखें तो ये नाम बताते हैं कि देवी माँ ललिता अग्नि कुंड से प्रकट हुईं और उन्होंने देवताओं का कार्य पूर्ण किया, अर्थात् राक्षस भांडासुर का विनाश किया।
परंतु गहराई में समझें तो, "चिदग्नि-कुण्ड-सम्भूता" का अर्थ है, देवी हमारी चेतना की अग्नि से उत्पन्न हुई हैं। माँ ललिता वह सर्वोच्च चेतना हैं जो हमारे जीवन से समस्याओं के अंधकार को हरकर अज्ञानता को समाप्त करती हैं।
श्री मद्भागवत गीता में श्रीकृष्ण के शब्द इसी विचार को व्यक्त करते हैं: "जैसे अग्नि लकड़ियों को राख (भस्म) में परिवर्तित कर देती है, वैसे ही ज्ञान की अग्नि सभी कर्मों (अच्छे या बुरे) को जला कर राख (भस्म) कर देती है।" (गीता: अध्याय IV, श्लोक 7)
माँ ललिता "देवकार्यसमुद्यता" हैं, अर्थात जो देवों के कार्यों को सरल बनाती हैं। यहाँ "देवकार्य" का अर्थ है कल्याणकारी कार्य। जब हम देवताओं की भाँति अपनी चेतना के अग्निकुंड में डूब जाते हैं, तो माँ ललिता हमारी सीमाओं का नाश करने के लिए प्रकट होती हैं। वे हमें अपनी वास्तविक प्रकृति और अद्भुत क्षमताओं से अवगत कराती हैं।
श्री यंत्र में वास करती हैं माँ ललिता
माँ ललिता श्री यंत्र में वास करती हैं। श्री यंत्र में मध्य त्रिकोण अग्नि वेदी का प्रतीक है। साधक के शरीर में यह सहस्त्रार चक्र द्वारा दर्शाया गया है, जिसमें ब्रह्मरंध्र नामक एक केंद्रीय छिद्र होता है। इस छिद्र से ऊपर उठने वाली ऊर्जा (ज्वाला) को ही चेतना की अग्नि या चिताग्नि कहा गया है। कुंडलिनी के रूप में माँ ललिता शरीर के सबसे निचले यानी मूलाधार चक्र में सुप्त अवस्था में होती हैं। जब गहन साधना के माध्यम से इस शक्ति को जागृत किया जाता है, तो यह ऊर्जा एक ज्वाला के रूप में रीढ़ की हड्डी के मध्य उठती है, और सहस्त्रार चक्र में इसका मिलन भगवान शिव से होता है। इस प्रक्रिया को "आंतरिक अग्नि का प्रज्ज्वलन" कहते हैं।
यज्ञ: एक सतत आंतरिक प्रक्रिया
यज्ञ केवल एक बाह्य अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक आंतरिक प्रक्रिया है। कठोर साधना के तप से हमारे ऋषि-मुनि यह जानते थे कि यज्ञ व अन्य अनुष्ठानों से अपने आराध्य के साथ गहन संबंध स्थापित किया जा सकता है।
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