गीता जयंती : भगवान कृष्ण और अर्जुन के शाश्वत संवाद का उत्सव
इस ब्लॉग में आपको श्रीमद्भगवद्गीता का हमारे जीवन में क्या महत्व है और गीता जयंती क्यों मनाई जाती है—इन दोनों विषयों के बारे में विस्तार से जानकारी मिलेगी।
‘जब कभी संदेह मुझे घेरते हैं और मेरे चेहरे पर निराशा छाने लगती है; मैं क्षितिज पर गीता रूपी एक ही उम्मीद की किरण देखता हूं। इसमें मुझे अवश्य ही एक छन्द मिल जाता है जो मुझे सान्त्वना देता है। तब मैं कष्टों के बीच मुस्कुराने लगता हूँ।’
-महात्मा गांधी
कई बार जीवन में ऐसे क्षण आते हैं जब हमारा मन तनाव और अनिर्णय से घिर जाता है। हमारी आंतरिक शक्ति डगमगा जाती है और भविष्य अंधकारमय दिखाई देने लगता है।
पाँच हजार वर्ष पूर्व, कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में महान कुरु योद्धा अर्जुन के समक्ष भी ऐसी ही परिस्थिति थी। उन्हें सौभाग्य से भगवान श्रीकृष्ण का मार्गदर्शन प्राप्त हुआ, जिन्होंने उन्हें ‘ईश्वर का शाश्वत गीत’ — श्रीमद्भगवद्गीता — का उपदेश दिया।
महर्षि वेदव्यास ने श्रीकृष्ण और अर्जुन के इस दिव्य संवाद को महाभारत के भीष्म पर्व में लिपिबद्ध किया। जिस दिन श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश दिया, वही दिन आज गीता जयंती के रूप में विख्यात है। यह पर्व मार्गशीर्ष मास की शुक्ल एकादशी को मनाया जाता है।
अर्जुन, कुरुक्षेत्र और श्रीकृष्ण : गहन अर्थ से परिपूर्ण अद्भुत दृश्य
श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि पर आधारित है, जहाँ पांडव और कौरवों की विशाल सेनाएँ युद्ध के लिए आमने-सामने खड़ी थीं। इस नाटकीय परिदृश्य में गहरे आध्यात्मिक अर्थ छिपे हैं।
संशयग्रस्त योद्धा अर्जुन शाश्वत साधक का प्रतीक है, जो आंतरिक संघर्षों से जूझ रहा है। हम सभी की तरह, वह भी धर्म और अधर्म, आसक्ति और कर्तव्य, भावनाओं और तर्क के बीच कठिन चुनाव का सामना करता है। कुरुक्षेत्र जीवन और मन का वह युद्धक्षेत्र है जहाँ हमारे सभी संघर्ष जारी रहते हैं। विरोधी सेनाएँ हमारे सद्गुणों और नकारात्मक प्रवृत्तियों के निरंतर संघर्ष का प्रतीक हैं।
अर्जुन जिस रथ पर विराजमान हैं, वह मानव शरीर का प्रतिनिधित्व करता है — वह रथ जिसके द्वारा हम जीवन-यात्रा करते हैं। रथ को खींचने वाले पाँच घोड़े पाँच इंद्रियों का प्रतीक हैं, और मन उनकी लगाम है, जो उन्हें नियंत्रित करता है। श्रीकृष्ण उस दिव्य मार्गदर्शक के रूप में उपस्थित हैं, जो हमारी अर्तमात्मा (आत्मन्) के रूप में हमें स्पष्टता, दिशा और आध्यात्मिक मार्ग प्रदान करते हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय अर्जुन की यात्रा को दर्शाते हैं कि किस तरह वह एक संशयग्रस्त योद्धा से धर्म के लिए संकल्पित योद्धा एवं श्रीकृष्ण का भक्त बना। वह प्रश्न करता है और भगवान श्रीकृष्ण के उत्तरों से गहन अंतर्दृष्टि प्राप्त करता है। संशय से संकल्प की ओर बढ़ने की यह यात्रा ही ‘निष्काम कर्म’ (फल की आसक्ति त्यागकर कर्म करना) का वास्तविक सार प्रकट करती है।
निस्संदेह, अर्जुन का मार्ग वही मार्ग है जिस पर युगों से सभी साधक चलते आए हैं। यही कारण है कि श्रीमद्भगवद्गीता हर युग, हर काल और हर परिस्थिति में प्रासंगिक बनी रहती है। उसके अत्यंत गहन, किंतु व्यवहारिक उपदेश आज भी विश्वभर के लोगों के हृदय को स्पर्श करते हैं।
चार योग: आधुनिक जीवन के लिए प्राचीन ज्ञान
श्रीमद्भगवद्गीता ‘योग’ को एक जीवन पद्धति के रूप में प्रस्तुत करती है। आज अधिकांश लोग योग को केवल व्यायाम के रूप में देखते हैं। लेकिन यह पवित्र ग्रंथ बताता है कि योग एक ऐसी क्रिया है, जिसका हम जाने-अनजाने निरंतर अभ्यास करते रहते हैं। यह मानसिक संतुलन के माध्यम से ईश्वर से एकत्व स्थापित करने का मार्ग है।
जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः।।6.7।।
(श्रीमद्भगवद्गीता 6.7)
‘जितात्मनः’ — अर्थात् जिसने अपने मन और इंद्रियों पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त कर लिया है। उपरोक्त श्लोक ऐसे व्यक्ति का अत्यंत प्रभावशाली चित्रण करता है, जो आत्म-शांति प्राप्त कर चुका हो और ईश्वर का साक्षात्कार कर लिया हो। वह गर्मी–सर्दी, सुख–दुःख, मान–अपमान जैसी परिस्थितियों में भी स्थिर, शांत और अविचलित बना रहता है।
श्रीमद्भगवद्गीता सभी आयु-वर्ग और अलग-अलग स्वभाव के लोगों के अनुरूप मार्ग प्रदान करती है। चारों योग अलग-अलग विधाएँ नहीं हैं, बल्कि मनुष्य के जीवन के भिन्न-भिन्न आयाम हैं।
कर्म योग में प्रत्येक कर्म को ‘अनासक्ति’ के साथ किया जाता है। कर्म योग अहंकार की ऊर्जा को करुणा में परिवर्तित कर देता है। महात्मा गांधी, जिन्होंने इस मार्ग का अनुसरण किया, कहते थे—
‘इसका अर्थ किसी भी प्रकार से परिणाम के प्रति उदासीनता नहीं है। त्याग का अर्थ केवल फल की लालसा का अभाव है, क्योंकि आसक्ति, चिंता और उतावलापन हमारे तंत्रिका तंत्र को प्रभावित करते हैं और हमारे मन के संतुलन को बिगाड़ देते हैं।
चैतन्य महाप्रभु और मीराबाई ने भक्ति योग का मार्ग अपनाया। यह ईश्वर के प्रति प्रेम और पूर्ण समर्पण का मार्ग था।
ज्ञान योग, अर्थात् ज्ञान का मार्ग। यह आधुनिक भौतिक विज्ञान के समान है। दोनों ही आत्म-परीक्षण और वैज्ञानिक अन्वेषण के माध्यम से भ्रम की परतों को हटाते हुए एक ही सत्य तक पहुँचते हैं, जो इस ब्रह्मांड में सभी चीजों की परस्पर-सम्बद्धता को उजागर करता है। प्रसिद्ध सैद्धांतिक भौतिक विज्ञानी अल्बर्ट आइंस्टाइन ने कहा था:
‘जब मैं भगवद्गीता पढ़ता हूँ और इस पर विचार करता हूँ कि भगवान ने इस ब्रह्मांड की रचना कैसे की, तो बाकी सब कुछ निरर्थक प्रतीत होता है।’
चौथा और अंतिम है ध्यान योग, जिसे राज योग भी कहते हैं। यह ध्यान और मानसिक अनुशासन का मार्ग है। इस मार्ग में साधक मन और इंद्रियों को नियंत्रित करना सीखता है, ताकि एकाग्रता और आत्मबोध की प्राप्ति हो सके। स्वामी विवेकानंद इस मार्ग के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
मानवता के लिए एक मार्गदर्शक ग्रंथ
हमारे समय में श्रीमद्भगवद्गीता विभिन्न संस्कृतियों के विचारकों और नेताओं को प्रेरित कर रही है। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कठिन समय में इसे चिंतन का स्रोत बताया है। भारतीय मूल की अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री सुनीता विलियम्स श्रीमद्भगवद्गीता को अपने साथ अंतरिक्ष में लेकर गई थीं। उन्होंने इसे व्यापक दृष्टिकोण प्रदान करने वाला एक मार्गदर्शक बताया।
गीता जयंती का उत्सव मनाएँ
गीता जयंती का पावन पर्व हमें श्रीकृष्ण के कालातीत संदेश का स्मरण कराता है। हम भ्रम को स्पष्टता में, भय को कर्तव्य में, और कर्मों को उपासना में परिवर्तित कर सकते हैं। श्रीकृष्ण ने ज्ञान को किसी ग्रंथ के रूप में नहीं, बल्कि एक गीत के रूप में दिया था। हमारा जीवन भी तो एक गीत ही है। कोई प्रेम के आनंद में डूबकर इसे गाता है, तो कोई नियमों से बंधकर।
भगवान ने हमें बुद्धि, मन और इंद्रियाँ प्रदान की हैं। इन्हीं साधनों का उपयोग करके हम अपनी विशिष्ट धुन, लय और ताल के साथ जीवन के गीत की रचना करते हैं। इस गीता जयंती पर आपके जीवन में स्पष्टता, साहस और आंतरिक सद्भाव का उदय हो।
साधना ऐप पर कृष्ण गायत्री मंत्र का जप करके या आगामी विष्णु सहस्रनाम साधना के लिए रजिस्ट्रेशन करके गीता जयंती का उत्सव मनाएँ। यह साधना 15 दिसंबर 2025 से 23 जनवरी 2026 तक उपलब्ध रहेगी। आप इसे अपनी सुविधा अनुसार 3, 11, 21, या 40 दिनों तक, किसी भी दिन से आरंभ कर सकते हैं।