अमर सुहाग और अनंत प्रेम

करवा चौथ व्रत का पौराणिक महत्व

हर साल कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को विवाहित महिलाएँ पति की लंबी आयु के लिए निर्जला व्रत रखती हैं। वे करवा माता से अपने पति की सुख-समृद्धि और सौभाग्य की प्रार्थना करती हैं। 

‘करवा’ का आशय मिट्टी के जल-पात्र (कलश) से है, जिसका प्रयोग करवा चौथ की पूजा में किया जाता है। बाद में इसे परिवार की समृद्धि और मंगलकामना हेतु दान कर दिया जाता है। करवा चौथ का यह पर्व महाभारत काल से मनाया जा रहा है। 

महाभारत काल में, पांडवों को एक समय अत्यंत विकट परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। जब अर्जुन तपस्या के लिए नीलगिरि पर्वतों पर गए, तब उनकी अनुपस्थिति में अन्य पांडवों को अनेक प्राणघातक संकटों का सामना करना पड़ा। द्रौपदी उनकी सुरक्षा को लेकर चिंतित थीं। द्रौपदी भगवान श्रीकृष्ण की शरण में गईं और उनसे मार्गदर्शन माँगा।

भगवान श्रीकृष्ण ने द्रौपदी को स्मरण कराया कि पूर्वकाल में, जब इसी प्रकार की परिस्थितियों में देवी पार्वती ने भगवान शिव से मार्गदर्शन माँगा था, तब उन्हें महादेव ने करवा चौथ व्रत करने की सलाह दी थी। द्रौपदी ने भगवान कृष्ण के निर्देशों का पालन करते हुए सभी विधि-विधान सहित यह व्रत किया। परिणामस्वरूप, पांडव सभी संकटों पर विजय प्राप्त करने में सफल हुए।

इस दिन महिलाएँ भक्तिभाव से व्रत की कथा सुनती हैं और अपना व्रत पूर्ण करती हैं। करवा चौथ, जिसे करक चतुर्थी के नाम से भी जाना जाता है, को लेकर कई लोक कथाएं प्रचलित हैं, जिनमें से एक प्रमुख कथा कुछ इस प्रकार है:

करवा चौथ व्रत की कथा

शुक्रप्रस्थपुर (वर्तमान दिल्ली) में वेदशर्मा नामक एक ज्ञानी ब्राह्मण रहते थे। उनकी पत्नी लीलावती थी। उनके घर में सात पराक्रमी पुत्र और एक सुंदर पुत्री, वीरवती, का जन्म हुआ। सातों भाई अपनी बहन से अत्यंत प्रेम करते थे। विवाह योग्य होने पर उन्होंने वीरवती का विवाह एक विद्वान ब्राह्मण से कर दिया।

विवाह के पश्चात, वीरवती ने कार्तिक कृष्ण चतुर्थी के दिन अपनी भाभियों के साथ माँ गौरी का व्रत किया। सांयकाल में स्नान करके, भक्तिभाव से वटवृक्ष का चित्र बनाया और उसके नीचे भगवान शंकर, गणेश जी, स्वामी कार्तिकेय तथा माँ गौरी का चित्र बनाकर कर उनका पूजन किया। व्रत की कथा सुनने के बाद, अर्घ्य देने के लिए वे चंद्रोदय की प्रतीक्षा करने लगी।

इसी दौरान वीरवती भूख-प्यास से मूर्छित होकर गिर पड़ी। उसके भाई चिंता में पड़ गए, और उनमें से एक भाई वटवृक्ष पर चढ़ गया। उसने जली हुई मशाल के सामने एक बड़ी गोल छलनी रखकर उससे निकलते प्रकाश से चंद्रमा का दृश्य बना दिया।वीरवती ने उस चंद्रमा देख कर ही विधि-पूर्वक पूजा की और भोजन कर लिया।

इस प्रकार, व्रत के खंडित हो जाने के कारण उसके पति की मृत्यु हो गई। वीरवती ने अपने पति को मृत देखकर पुनः शिवजी का पूजन किया और एक वर्ष तक निराहार रहकर तपस्या की। वर्ष के समाप्त होने पर उसने करक चतुर्थी का व्रत पूरी विधि-विधान से किया।

उसी दिन, देव-कन्याओं के साथ, इंद्राणी स्वयं स्वर्ग से करक चतुर्थी का व्रत करने वीरवती के पास आईं, तब वीरवती ने उनसे सारी बातें पूछीं। वीरवती ने कहा, 

“मैं करक चतुर्थी का व्रत करके अपने पति के घर आई, लेकिन मेरे पति मृत्यु को प्राप्त हो चुके थे। मैं नहीं जानती थी कि किस दुष्कर्म से मुझे यह फल मिला। हे मातेश्वरी, हमारे भाग्य से आप यहाँ आ गई हैं। कृपया मेरे पति को जीवित करके मुझ पर कृपा करें।

इंद्राणी ने बताया कि पिछले वर्ष बिना चंद्रमा देखे अर्घ्य देने के कारण ही उसके पति की मृत्यु हुई। इस बार यदि विधिपूर्वक व्रत किया गया तो पति जीवित हो जाएंगे। वीरवती ने सावधानीपूर्वक व्रत किया और इंद्राणी ने प्रसन्न होकर उसके पति को पुनः जीवित कर दिया।

इस प्रकार, व्रत के प्रभाव से वीरवती के पति को धन-धान्य और दीर्घायु प्राप्त हुई।

माँ गौरी और चंद्रमा की पूजा क्यों महत्वपूर्ण 

करवा चौथ के दिन माँ गौरी, भगवान शिव और भगवान गणेश की पूजा की जाती है। माँ पार्वती को शाश्वत वैवाहिक सुख का प्रतीक माना जाता है, क्योंकि अपने हर अवतार में उन्होंने भगवान शिव से विवाह किया। इसलिए, इस दिन विवाहित सुमंगली स्त्रियाँ चंद्रमा के माध्यम से देवी माँ से वैवाहिक सुख का आशीवार्द माँगती है।

चतुर्थी के चंद्रमा को भगवान गणेश द्वारा दैवीय औषधीय गुणों से संपन्न होने का आशीर्वाद प्राप्त है, इसलिए इस चंद्रमा की पूजा के फलस्वरूप दीर्घायु प्राप्त होती है 

पौराणिक कथाओं के अतिरिक्त, करवा चौथ महिलाओं के बीच सामाजिक संबंधों को मजबूत करता है। यह विवाहित महिलाओं को एक साथ एकत्रित होने, एक-दूसरे का सहयोग करने और मिलकर उत्सव मनाने का अवसर प्रदान करता है।

देश के कुछ राज्यों में करवा चौथ व्रत में सरगी का अत्यंत महत्व होता  है। यह सूर्य उदय से पहले सास द्वारा बहू को प्रेम और आशीर्वाद के प्रतीक के रूप में दी जाती है। यह भोजन दिनभर का उपवास बनाए रखने के लिए आवश्यक ऊर्जा प्रदान करता है और सुबह स्नान करने के बाद ग्रहण किया जाता है। यह परंपरा सास और बहू के बीच स्नेह और सम्मान के भाव को दर्शाती है। 

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महत्वपूर्ण तिथियाँ और समय

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चतुर्थी तिथि आरंभ
9 अक्टूबर 2025, रात्रि 10:54 बजे
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चतुर्थी तिथि समाप्त
10 अक्टूबर 2025, सायं 07:38 बजे
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करवा चौथ पूजा मुहूर्त
10 अक्टूबर 2025, सायं 05:57 बजे से 07:11 बजे तक

🕰️ समय IST (भारतीय मानक समय) के अनुसार।

ℹ️ स्थानीय पंचांग/शहर के अनुसार समय में थोड़ा अंतर संभव है।

🙏 करवा चौथ व्रत की विधि

  1. जागने के तुरंत बाद स्नान करें।
  2. कुछ क्षेत्रों में सूर्योदय से पहले सरगी खाने की परंपरा है।
  3. तैयार होकर पारंपरिक वस्त्र पहनें और पूरे दिन व्रत का पालन करें।
  4. करवे को पानी से भरें और उसमें थोड़ा गंगाजल डालें। करवे में गेहूँ की बालियाँ रखें। करवे को पात्र से ढककर उस पात्र में अक्षत रखें। अक्षत के साथ पानीफल (सिंघाड़ा) या कोई छोटा फल रखें। साथ ही एक लड्डू और कुछ पुष्प भी रखें।
  5. दिए गए मुहुर्त में चंद्रोदय से पूर्व करवा माता की पूजा कर उन्हें नैवेद्य अर्पित करें। माँ गौरी का षोडशोपचार पूजन करें। आप साधना ऐप पर माँ दुर्गा के धाम ‘कंदंब वन’ में जाकर यह पूजा कर सकते हैं। इसके पश्चात माँ गौरी का भी एक करवा रखकर 7 बार उनसे अपना करवा घड़ी की दिशा में (क्लॉकवाइज) बदलें। करवा बदलते समय 'सदा सुहागन करवा लेही, करवा लेही' बोलने की प्रथा है।
  6. हाथ में 16 चावल के दाने रखकर कथा का पाठ या श्रवण करें। इसके पश्चात प्रसाद का पात्र अलग निकालकर अक्षत और कुछ दक्षिणा के साथ उसे किसी सुहागन स्त्री, सास या मंदिर में पंडितायिन को या करवा चौथ की कथा वाचिका को दान करें।
  7. चंद्रोदय होने पर, पहले चंद्रमा की पूजा करें, उन्हें अर्घ्य दें और फिर अपने पति का चेहरा देखकर उनके हाथ से जल ग्रहण कर उपवास खोलें।
  8. उपवास खोलने के बाद सात्विक भोजन ग्रहण करें।